सुबोध चन्द्र सुमन (S. C. Suman) नेपाल के समकालीन चित्रकारों में एक महत्वपूर्ण नाम हैं, जिनकी कला में परंपरा और आधुनिकता का अनूठा संगम देखने को मिलता है। मिथिला क्षेत्र में जन्मे सुमन ने बचपन से ही लोककला, विशेषकर मधुबनी चित्रकला से प्रेरणा ली, जिसे उन्होंने आधुनिक दृष्टिकोण के साथ पुनर्परिभाषित किया। उनकी चित्रकृतियों में मिथिला की पारंपरिक रेखांकन शैली, गहरे रंगों का प्रयोग, तथा सूक्ष्म आकृतियों का संयोजन दिखाई देता है, लेकिन विषयवस्तु आधुनिक जीवन, सामाजिक यथार्थ और सांस्कृतिक द्वंद्व से भी जुड़ी रहती है।
सुमन की कला केवल सौंदर्यबोध तक सीमित नहीं, बल्कि उसमें सामाजिक सरोकार और सांस्कृतिक चेतना भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। उन्होंने मिथिला कला को वैश्विक मंच तक पहुँचाने में योगदान दिया है और नेपाल सहित भारत व अन्य देशों की प्रदर्शनियों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उनके चित्र मिथिला की सांस्कृतिक स्मृति और आधुनिक समय के प्रश्नों के बीच एक सेतु का कार्य करते हैं। सुबोध चन्द्र सुमन इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण हैं कि उन्होंने पारंपरिक लोकशैली को नयी ऊर्जा प्रदान करते हुए उसे समकालीन संदर्भों में सार्थकता दी है। यहाँ प्रस्तुत है पौभा चित्रकला पर केन्द्रित उनका यह विस्तृत आलेख –संपादक
एससी सुमन
नेपाल में प्रचलित पौभा चित्रकला : पौभा चित्रकला नेपाल की प्राचीन और विशिष्ट धार्मिक कलाओं में एक है, जो बौद्ध तथा हिन्दू धार्मिक परंपराओं की समृद्ध दृष्टि और सांस्कृतिक चेतना का जीवंत प्रतीक मानी जाती है । यह शैली मुख्यतः नेवार समुदाय की देन है, जो काठमांडू घाटी की मूल निवासी जाति है । इस चित्रकला का इतिहास लगभग 9वीं-10वीं शताब्दी ई. से प्रारंभ माना जाता है, यद्यपि इसके लक्षण प्राचीन भारतीय पाण्डुलिपियों तथा दीवार चित्रों में भी पूर्ववर्ती रूप में दृष्टिगोचर होते हैं ।
इतिहास और उद्भव : ‘पौभा’ शब्द संस्कृत के “पट” (कपड़ा) और “भट्टा” (चित्र) से निकला माना जाता है, जिसका अभिप्राय है—कपड़े पर चित्रित देवमूर्ति। यह चित्रकला शैली मुख्यतः धार्मिक अनुष्ठानों के लिए निर्मित की जाती रही है । काठमांडू की उपत्यका में बौद्ध धर्म के महायान और वज्रयान संप्रदायों के प्रभाव से पौभा चित्रकला को एक गूढ़ और तांत्रिक अभिव्यक्ति मिली ।
9वीं से 14वीं शताब्दी के मध्य मल्ल वंश के शासन काल में इस कला को विशेष संरक्षण मिला । मल्ल राजाओं ने बौद्ध और हिन्दू दोनों ही धार्मिक परंपराओं को समान सम्मान दिया, और उनके शासनकाल में मंदिरों, विहारों तथा राजप्रासादों में इन चित्रों की स्थापना की जाने लगी ।
शैलीगत विकास : प्रारंभिक पौभा चित्र दीवारों पर भी बनते थे, परंतु कालांतर में यह कपड़े पर की जाने वाली चित्रकला बन गई, जिसे अनुष्ठानों के समय प्रयुक्त किया जाता। चित्रों में बोधिसत्त्व, तारा, अवलोकितेश्वर, वज्रयोगिनी, काल भैरव आदि को विशेष रूप से चित्रित किया जाता है। प्रत्येक चित्र का एक तांत्रिक, दार्शनिक और प्रतीकात्मक अर्थ होता है।
भारतीय प्रभाव और आदान-प्रदान : पौभा शैली पर भारतीय पाल वंश की बौद्ध चित्रकला शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है । विशेषतः नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों में निर्मित चित्रों के अनेक तत्व पौभा शैली में समाहित हैं । यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि नेपाल के चित्रकारों को तिब्बत, भूटान और सिक्किम में भी आमंत्रित किया जाता था, जहाँ उन्होंने अपनी शैली में थंका चित्रकला को आकार दिया ।
प्रसिद्ध उदाहरण : नेपाल के विभिन्न संग्रहालयों तथा मंदिरों में आज भी 12वीं-13वीं शताब्दी की पौभा चित्रकला के उदाहरण उपलब्ध हैं । काठमांडू का पाटन संग्रहालय, हनुमान ढोका, तथा स्वयंभूनाथ स्तूप इनके अद्वितीय उदाहरण हैं। पौभा चित्रकला नेपाल की न केवल एक कलात्मक धरोहर है, बल्कि यह भारतीय उपमहाद्वीप की साझा सांस्कृतिक विरासत का भी एक अमूल्य अंश है। इसका उद्भव और विकास धार्मिक चेतना, तांत्रिक साधना तथा सांस्कृतिक सौंदर्यबोध के अद्भुत संगम का प्रतिफल है।
सेन वंशीय शासकों का पौभा चित्रकला में योगदान :नेपाल की पौभा चित्रकला भले ही नेवार समुदाय की प्रमुख सांस्कृतिक पहचान रही हो, किंतु इसके ऐतिहासिक विकास में भारत के कुछ राजवंशों, विशेषकर पूर्वी भारत के सेन वंश का भी एक परोक्ष किन्तु महत्वपूर्ण योगदान रहा है । 11वीं से 13वीं शताब्दी के मध्य बंगाल और मिथिला क्षेत्र में सेन वंश का प्रभुत्व रहा, जिसका प्रभाव तत्कालीन नेपाल क्षेत्र पर भी सांस्कृतिक और धार्मिक स्तर पर पड़ा ।
सेन वंश और बौद्ध परंपरा :यद्यपि सेन वंश स्वयं वैष्णव धर्म को मानता था, किन्तु उन्होंने बौद्ध धर्म और तांत्रिक साधनाओं के प्रति भी सहिष्णुता दिखाई। मिथिला और बंगाल में पाल वंश के पतन के बाद सेन वंश ने उनकी सांस्कृतिक परंपराओं को पूरी तरह नष्ट नहीं किया, बल्कि कुछ अंशों को संरक्षण भी दिया । यह वह समय था जब नेपाल और मिथिला के बीच बौद्ध भिक्षुओं और कलाकारों का आदान-प्रदान सक्रिय था ।
संस्कृति का प्रसार : सेन वंश के शासनकाल में मिथिला और नेपाल के बीच व्यापार और तीर्थयात्रा के मार्ग सुरक्षित थे ।इससे पौभा चित्रकला और पाल-कालीन बौद्ध चित्र परंपरा के तत्त्वों का परस्पर विलय हुआ । कुछ विद्वान मानते हैं कि पौभा चित्रों की रचना पद्धति, रंग योजना और चक्र संरचना में मिथिला के धार्मिक और तांत्रिक प्रभावों की झलक देखी जा सकती है ।
यद्यपि सेन वंश द्वारा प्रत्यक्ष रूप से पौभा चित्रकला को संरक्षण दिए जाने के स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं, तथापि उस कालखंड में मिथिला और नेपाल के बीच जो सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ, वह निश्चित रूप से इस शैली के दार्शनिक और कलात्मक विकास में सहायक सिद्ध हुआ । इस प्रकार सेन वंशीय काल को पौभा चित्रकला के संक्रमणकालीन सेतु के रूप में देखा जा सकता है ।
नेवार समुदाय के अतिरिक्त पौभा चित्रकला में अन्य समुदायों की भागीदारी : पौभा चित्रकला का उद्भव और विकास मुख्यतः नेवार समुदाय की बौद्ध व हिन्दू परंपराओं के बीच हुआ। नेवार समाज में यह चित्रकला ‘चित्कार’ (चित्रकार) जाति से संबद्ध कलाकारों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही। यह एक पारंपरिक गुरु-शिष्य परंपरा थी, जो दीक्षा, साधना और अनुष्ठान से जुड़ी हुई थी। तथापि, समय के साथ और वैश्वीकरण के प्रभाव में, यह कला अन्य समुदायों और देशों में भी फैलने लगी।
बौद्ध भिक्षु एवं लामा:नेपाल के बौद्ध विहारों में तिब्बती लामा वर्ग के भिक्षु भी पौभा शैली से प्रभावित होकर थंका चित्रकला में संलग्न हुए। कई बार नेपाल के नेवार चित्रकारों को तिब्बत आमंत्रित किया गया, जहाँ उन्होंने स्थानीय भिक्षुओं को चित्रकला का प्रशिक्षण दिया।
भारतीय कलाकार :भारत के दार्जिलिंग, सिक्किम, लद्दाख और बनारस में बसे नेपाली मूल के कलाकारों ने इस शैली को न केवल जीवित रखा, बल्कि भारतीय संदर्भ में नया रूप भी दिया। ये कलाकार विविध सामाजिक पृष्ठभूमियों से थे, जिनमें कुछ मिथिला, बंगाल और पहाड़ी क्षेत्रों के भी थे।
समकालीन शिल्पकार एवं अकादमिक कलाकार :वर्तमान में पौभा चित्रकला को आधुनिक कला संस्थानों से प्रशिक्षित कलाकारों ने भी अपनाया है । ये कलाकार जातीय या पारंपरिक गुरुपरंपरा से भले न जुड़े हों, किंतु शोध और साधना के माध्यम से वे इस शैली में नवाचार कर रहे हैं । यद्यपि पौभा चित्रकला का मूल बीज नेवार समाज में ही रोपित हुआ, किन्तु आज यह एक आंतरजातीय और अंतरराष्ट्रीय कला परंपरा बन चुकी है । इसकी समृद्धि में अब न केवल नेपाल, बल्कि भारत, भूटान, तिब्बत और पश्चिमी जगत के कलाकारों का भी सहभाग बढ़ता जा रहा है । यह इसकी जीवंतता और कालातीतता का प्रमाण है ।
पौभा चित्रकला के विषयवस्तु और निर्माण सामग्री का विस्तृत विवरण :पौभा चित्रकला का मूल उद्देश्य केवल सौंदर्य रचना नहीं है, बल्कि यह आध्यात्मिक, तांत्रिक और अनुष्ठानिक उद्देश्य से प्रेरित होती है। इस शैली के अधिकांश चित्रों का विषय धार्मिक होता है—विशेषकर बौद्ध धर्म (महायान, वज्रयान) तथा हिन्दू धर्म से सम्बंधित देवी-देवता, बोधिसत्त्व, और तांत्रिक रूप।
बौद्ध विषयवस्तु :
अवलोकितेश्वर (लोकनाथ) — करुणा का प्रतीक बोधिसत्त्व ।
तारा देवी — 21 रूपों में पूजी जाती हैं, विशेष रूप से हरित (ग्रीन) तारा और श्वेत (व्हाइट) तारा ।
वज्रयोगिनी — तांत्रिक साधना में प्रमुख देवी ।
मंत्र मंडल (मंडल) — ध्यान और अनुष्ठान हेतु विशेष संरचना, जिसमें चक्र, त्रिकोण, पद्म और बिंदु होते हैं ।
ध्यान मुद्रा में बुद्ध — विभिन्न बुद्धों को भिन्न-भिन्न मुद्राओं में चित्रित किया जाता है ।
हिन्दू विषयवस्तु :
काल भैरव — रौद्र रूप, जो नेपाल में अत्यधिक पूजित हैं ।
गणेश, विष्णु, लक्ष्मी, सरस्वती — पारंपरिक रूपों में, किंतु नेपाल विशेष शैलियों के साथ ।
दशावतार और नवदुर्गा — पौराणिक आख्यानों से प्रेरित ।
मिश्रित एवं प्रतीकात्मक विषय :
नेपाल की धार्मिक संस्कृति में सिंक्रेटिज्म (धार्मिक समन्वय) का गहरा प्रभाव है। एक ही चित्र में बौद्ध और हिन्दू प्रतीकों का सह-अस्तित्व देखने को मिलता है । लोककथाओं और यक्ष-यक्षिणियों के चित्रण भी मिलते हैं । तांत्रिक यंत्र, चक्र, और बोधि वृक्ष जैसे प्रतीकों का स्थान महत्वपूर्ण होता है ।
चित्रण की सामग्री एवं तकनीक (Materials & Technique):
Photo: Google
आधार (Canvas) :पारंपरिक पौभा चित्र कपड़े (Cotton or Canvas) पर बनाए जाते हैं।
पहले कपड़े को कई बार पानी में धोकर, सुखाया जाता है, फिर उस पर एक मिश्रण चढ़ाया जाता है — प्रायः चॉक पाउडर और जानवरों की त्वचा की गोंद का घोल । इस सतह को मसालकर चमकाया जाता है, जिससे चित्र में चमक आती है।
रंग (Natural Pigments) :परंपरागत रूप से पौभा चित्रों में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग होता है ।
लाल — सिन्नबर या गेरू ,नीला — लैपिस लाजुली, हरा — मालाकाइट, सफेद — चूना पत्थर, काला — लकड़ी की कालिख या सूखे फल से, सोने और चाँदी की पत्तियाँ — विशेष रूप से प्रमुख देवताओं की आभा में ।
ये रंग न केवल सौंदर्य के लिए हैं, बल्कि इनमें तांत्रिक ऊर्जा के धारक रंगों की मान्यता भी जुड़ी होती है ।
चित्रण शैली : चित्रों में अत्यधिक सूक्ष्म रेखाएं, सामंजस्यपूर्ण अनुपात, तथा गहराई में प्रतीकात्मकता होती है । चित्रकार चित्र आरंभ करने से पूर्व मंत्रोच्चार और ध्यान करते हैं । रचना की शुरुआत मंडल या मूल देवता से होती है, उसके बाद सहायक प्रतीक और पृष्ठभूमि जोड़ी जाती है ।
अन्य तकनीकी पहलू :चित्रों में केंद्रीय रचना (Central Composition) प्रमुख होती है, जिसमें देवता को मध्य में, और चारों ओर अन्य तत्वों को सममित रूप से रखा जाता है । कुछ पौभा चित्रों में तीन-स्तरीय संरचना होती है ।ऊपरी भाग — दिव्य क्षेत्र, मध्य भाग — सांसारिक क्षेत्र, निचला भाग — मरणशीलता और नरक के प्रतीक
पौभा निर्माण: साधना या चित्रण?
पारंपरिक कलाकार पौभा को केवल चित्र नहीं मानते — यह एक “साधना” है। चित्रकार को आंतरिक शुद्धता, ध्यान, और संकल्प के साथ चित्र निर्माण करना होता है। इसी कारणवश, एक उच्चकोटि का पौभा बनाना महीनों से वर्षों तक का कार्य हो सकता है।
आधुनिक सामग्रियाँ और नवाचार :आज के कुछ कलाकार परंपरागत शैली को बनाए रखते हुए ऐक्रेलिक रंग, सिंथेटिक कैनवास, और डिजिटल स्केचिंग का प्रयोग भी कर रहे हैं, किंतु वे मूल रचना-तत्त्वों की शुद्धता को बनाए रखने का प्रयास करते हैं।
पौभा चित्रकला का विषयवस्तु जहां एक ओर आध्यात्मिक साधना और प्रतीकवाद से जुड़ा है, वहीं उसकी निर्माण प्रक्रिया स्वयं में एक शारीरिक और मानसिक तपस्या है। इसके रंग, रूप, संरचना और शैली — सब कुछ एक गहन दार्शनिक एवं तांत्रिक दृष्टिकोण से प्रेरित होते हैं। यही कारण है कि पौभा चित्रकला केवल एक कलात्मक विधा नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक साधना भी है।
पौभा और थंका चित्रकला में समानता और भिन्नता :पौभा (Paubha) और थंका (Thangka) दोनों ही बौद्ध धार्मिक चित्रकलाएं हैं, जो विशिष्ट धार्मिक प्रतीकवाद, अनुष्ठानिक महत्व और सौंदर्यात्मक सौष्ठव से सम्पन्न हैं । यद्यपि इन दोनों शैलियों का उद्भव भिन्न भू-भागों में हुआ — पौभा नेपाल के नेवार समुदाय से और थंका तिब्बत की लामाई परंपरा से — परन्तु इनमें ऐतिहासिक, कलात्मक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से गहरे संबंध हैं ।
समानताएँ (Similarities) :धार्मिक उद्देश्य : दोनों शैलियाँ बौद्ध धर्म के महायान और वज्रयान संप्रदायों से जुड़ी हैं । चित्रों का उपयोग ध्यान, उपासना और अनुष्ठान के लिए किया जाता है ।
कपड़े पर चित्रण :दोनों ही चित्रकला शैलियाँ कपड़े (Canvas) पर निर्मित होती हैं, जिस पर प्राकृतिक रंगों से चित्र बनाए जाते हैं ।
मंडल और चक्र : दोनों शैलियों में मंडल, ध्यान मुद्रा, धर्म चक्र, तारा, अवलोकितेश्वर, वज्रयोगिनी आदि समान विषय मिलते हैं ।
चित्रकला की प्रक्रिया : चित्रांकन की प्रक्रिया दोनों में ही अनुष्ठानिक होती है — जहाँ चित्रकार ध्यान, शुद्धि और मंत्रोच्चारण के साथ रचना करता है ।
ऐतिहासिक संबंध :इतिहासकारों के अनुसार, पौभा शैली पहले विकसित हुई, और बाद में नेवार चित्रकारों को तिब्बत आमंत्रित किया गया, जहाँ उन्होंने थंका चित्रकला की नींव रखी । इसीलिए प्रारंभिक थंका चित्रों में पौभा के समान सूक्ष्म रेखाएं, मंडल संरचना और शांत भाव परिलक्षित होते हैं ।
पौभा और थंका एक ही धार्मिक-सांस्कृतिक परंपरा की दो धाराएँ हैं। यदि पौभा को जड़ माना जाए, तो थंका उसका फल है। दोनों शैलियाँ न केवल कलात्मक गहराई से युक्त हैं, बल्कि वे आध्यात्मिक साधना का भी माध्यम हैं। अंतर इनके भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक प्रसंगों में है, परंतु मूल भावना और उद्देश्य एक समान ही हैं — मोक्ष की ओर मार्गदर्शन।
पौभा और मिथिला चित्रकला में आकृतियों की समानता: एक तुलनात्मक दृष्टि-पौभा और मिथिला—दोनों ही चित्रकला शैलियाँ भारतीय उपमहाद्वीप की अत्यंत समृद्ध, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं की अभिव्यक्ति हैं । पौभा जहाँ नेपाल की नेवार बौद्ध परंपरा से उपजी है, वहीं मिथिला चित्रकला का विकास उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र में वैदिक, पौराणिक और लोक परंपराओं के सम्मिलन से हुआ । पहली दृष्टि में ये दोनों शैलियाँ भिन्न प्रतीत होती हैं, परंतु इनमें कई ऐसे तात्विक बिंदु हैं जो संभावित सांस्कृतिक संवाद और प्रभाव को संकेतित करते हैं ।
रूपांकन की विशेषताएँ (Form and Figure):
समानताएँ :समरूप चेहरे: दोनों शैलियों में मुख्य आकृतियों—चाहे वह देवी हों या देवता—का चेहरा समरूप और परंपरागत शैली में अंकित होता है, जिसमें भाव प्रधान होते हैं, न कि यथार्थवादी विवरण ।
नेत्रों की प्रमुखता: दोनों में नेत्र विशेष रूप से बड़े और अभिव्यक्तिपूर्ण बनाए जाते हैं। मिथिला में “नेत्र दर्शन” और पौभा में “दिव्य दृष्टि” की मान्यता जुड़ी है । सममित संरचना: दोनों शैलियों में रचनात्मक संतुलन (symmetry) अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है — मुख्य पात्र को मध्य में और अन्य पात्रों/तत्त्वों को चारों ओर संतुलित रूप में रखा जाता है।
रंगों की योजना (Color Scheme):
समानताएँ : दोनों में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग पारंपरिक रूप से होता रहा है। लाल, नीला, हरा, पीला, काला जैसे प्रमुख रंगों की भूमिका समान है — ये न केवल सौंदर्य की दृष्टि से, बल्कि प्रतीकात्मक अर्थ से भी प्रयोग किए जाते हैं ।
भिन्नताएँ : पौभा में रंगों का प्रयोग अधिक गहराई और परतों के साथ होता है, जबकि मिथिला चित्रों में रंग भरना समतल (flat) शैली में किया जाता है ।
प्रतीकों का प्रयोग (Symbolism) :
समानताएँ : पद्म (कमल), मंडल, सूर्य और चंद्र, पक्षी, मत्स्य आदि प्रतीक दोनों शैलियों में सामान्य रूप से मिलते हैं।
नारी आकृति का केंद्रस्थ महत्व : पौभा में तारा, वज्रयोगिनी, जबकि मिथिला में सीता, दुर्गा या राधा — दोनों में स्त्री शक्ति का विशिष्ट स्थान है ।
आध्यात्मिक-सांस्कृतिक संरचना: दोनों चित्रशैलियाँ केवल सौंदर्य की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों, पारिवारिक संस्कारों, और सांस्कृतिक स्मृति का साधन भी हैं।
चित्रकार को एक साधक के रूप में देखा जाता है — मिथिला में यह परंपरा स्त्रियों में प्रचलित है, जबकि पौभा में यह अधिकतर पुरुष चित्रकारों तक सीमित रही है ।
संभावित ऐतिहासिक संवाद :
विद्वानों का मानना है कि पाल वंशीय बंगाल-मिथिला क्षेत्र से कई धार्मिक और कलात्मक धारणाएं नेपाल पहुँचीं। उसी समय के दौरान मिथिला की लघु चित्र परंपरा और पौभा के प्रारंभिक रूपों में संपर्क हुआ होगा । विशेषकर सेन वंश के काल में नेपाल और मिथिला के बीच जो सांस्कृतिक आवाजाही थी, वह दोनों शैलियों के बीच पारस्परिक प्रभाव की संभावना को प्रबल बनाती है । पौभा और मिथिला चित्रशैली, यद्यपि दो भिन्न भूगोलों से उपजी हैं, परंतु उनके प्रतीक, संरचना, रंग योजना और धार्मिक भावभूमि में कई स्थलों पर समानता दृष्टिगोचर होती है। यह समानता न केवल कला के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि इससे उपमहाद्वीप की साझा सांस्कृतिक विरासत की गहराई का भी पता चलता है। यह संवाद एक ‘लोक से ललित कला’ की यात्रा भी है — जहाँ मिथिला का सहज लोकभाव और पौभा की गूढ़ साधना मिलकर एक सांस्कृतिक सेतु बनाते हैं ।
किसी पौभा चित्रकार का साक्षात्कार—खासकर किसी ऐसे का, जिसके खानदान में यह परंपरा कई पीढ़ियों से चली आ रही हो ।
हाँ, नेपाल के काठमांडू घाटी में आज भी ऐसे अनेक नेवार चित्रकार परिवार विद्यमान हैं, जिनमें पौभा चित्रकला की परंपरा कई पीढ़ियों से चली आ रही है। कुछ प्रसिद्ध नाम इस प्रकार हैं चित्रकार (Deepak Raj Joshi), मुक्ती थापा, लोकचित्रकार आदि।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में :आजकल पौभा चित्रकला का अभ्यास करने वाले कलाकार, जैसे कि लोकचित्रकार, इस परंपरा को शोध, प्रदर्शनी और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रस्तुत कर रहे हैं । इन्होंने पौभा को केवल एक पारंपरिक कला न मानकर “ध्यान और दर्शन की जीवित परंपरा” के रूप में प्रचारित किया है।
निष्कर्ष:
पौभा चित्रकला केवल रंगों और रेखाओं की कृति नहीं, बल्कि यह एक आध्यात्मिक साधना, सांस्कृतिक धरोहर और तांत्रिक दृष्टिकोण की जीवंत अभिव्यक्ति है। इसका उद्भव नेपाल के नेवार समुदाय में हुआ, परंतु इसका विकास केवल एक जाति तक सीमित नहीं रहा। भारत के पाल और सेन वंशों से लेकर तिब्बत की लामाई परंपरा तक, इस चित्रशैली ने विभिन्न सभ्यताओं और विचारधाराओं से संवाद करते हुए अपनी मौलिकता और गहराई को बनाए रखा।
यह चित्रकला न केवल मंदिरों और विहारों की दीवारों पर अंकित होती है, बल्कि चित्रकार के मन, हृदय और आत्मा में उत्कीर्ण होती है। इसका प्रत्येक तत्व—आकृति, रंग, मुद्रा, मंडल—कोई न कोई दर्शन या साधना से जुड़ा होता है। मिथिला चित्रकला और पौभा के बीच आकृतियों, प्रतीकों और संरचना में जो साम्यता मिलती है, वह इस बात की साक्षी है कि उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक चेतना बहुपरतीय और संवादशील रही है। पौभा और थंका के मध्य जो ऐतिहासिक संबंध है, वह कला की सीमाओं को पार करने की क्षमता का परिचायक है। आधुनिक युग में, जब चित्रकला प्रायः बाज़ार और प्रदर्शन तक सीमित होती जा रही है, तब पौभा जैसे परंपरागत शैलियों की प्रासंगिकता हमें यह सिखाती है कि कला न केवल दृष्टि का विषय है, बल्कि एक साधना है, एक जीवंत परंपरा है। यह हमें अपनी जड़ों, अपने धर्म और अपने लोक-संस्कारों से जोड़ती है ।
आवरण चित्र : लेखक एस. सी. सुमन के साथ पौभा कलाकार लोक चित्रकार
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चित्रकलाको ऐतिहासिक विकासको सेरोफेरो कला जीवनकला विशेष साहित्यपोस्ट माघ २२, शनिबार ०८:०१ 300 SHARES Share Tweet Subscribe एससी सुमन एससी सुमन सम्भवत: गाँस, बास, कपास र सन्तानोत्पत्ति पश्चात् मानिसको सबैभन्दा पुरानो आवश्यकता स्वयंलाई व्यक्त गर्नु रहेको थियो। प्रकृति मानिसको पहिलो गुरु थियो। प्रकृतिले उसभित्र आफ्नो लागि भय, आदर र प्रेम उत्पन्न गरेर उसलाई जीवनमा आगाडि कसरी बढनु पर्छ भनी सिकायो। मानिस आजको राम्रो वा नराम्रो, ज्ञानि वा मूर्ख जस्तो पनि छ, उसको मूलमा प्रकृति नै हो। भाषाको जन्म भन्दापूर्व, आज भन्दा हजारौं, लाखौं वर्ष पहिले प्राचीन पाषाण तथा नवपाषाण युगमा जंगलमा फिरन्ते रुपमा विचरण गर्ने मनुष्यले ध्वनि, संकेत, मुद्राको संकेत र हाउभाउलाई भाषाको रुपमा प्रयोग गर्थे। आफ्नो कुरा भन्नको लागि आफ्नो घाँटीबाट कण्ठ्य ध्वनि निकाल्थे र संकेतसँगै प्रतीकको प्रयोग गर्ने गर्थे होला। मानव आफ्नो छेउछाउको प्राणीको ध्वनिको अनुसरण गर्ने गर्थे तर यो पर्याप्त थिएन। आफ्नो वरपर हुने गतिविधिलाई अभिनयको माध्यमले संकेत गर्ने गर्थे। बादलको गर्जन, बिजलीको चमक, झरनाको मधुर ध्वनि र जंगलमा वायुको तरङ्ग, ...
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