" लोक चित्रकार का लोक लय"

 

“लोक चित्रकार” का लोक लय

वरिष्ठ कलाकार एस. सी. सुमन अपने इस आलेख के माध्यम से नेपाल में प्रचलित पौभा चित्रकला के ख्यात कलाकार लोक चित्रकार और उनकी कला यात्रा पर चर्चा कर रहे हैं I-संपादक

एस.सी. सुमन

नेपाल की पारंपरिक चित्रकला की एक विधा नेवारी समुदाय द्वारा बनाई जाने वाली पौभा कला है। देखने में यह थाङ्का जैसी लग सकती है, लेकिन इसकी शैली और भावना में अंतर होता है। पौभा कला केवल देवी-देवताओं की कथाओं को ही नहीं, बल्कि आम लोगों की जीवनशैली की कहानियों को भी समेटती है, जबकि थाङ्का कला धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं को विशेष प्राथमिकता देती है।

नेपाल में गौतम बुद्ध के काल से ही पौभा कला के सृजन की शुरुआत हुई है, ऐसा शास्त्रीय विश्वास है। हालांकि, विदेशी लेखों और अन्य प्रमाणों के आधार पर यह पाया गया है कि 13वीं शताब्दी तक बनी पौभा कलाओं के ऐतिहासिक दस्तावेज उपलब्ध हैं। परंपरागत पौभा कला को धर्म, संस्कृति और जीवनशैली को जीवंत रखने वाले एक साधन के रूप में माना जाता है।

एक तो वैसे ही काठमांडू में कला से जुड़ी गतिविधियाँ धीमी हैं, ऊपर से कोरोना महामारी के कारण लम्बे समय तक लोग घरों में ही बंद रहे। इसी महामारी के दौरान आवश्यक सुरक्षा के दायरे में रहकर, ठमेल स्थित म्यूज़ियम ऑफ नेपाली आर्ट (मोना) में क्यूरेटर उजेन नोर्बु गुरुङ द्वारा ‘पंचतत्व’ थीम के अंतर्गत ‘जलतत्व’ पर केंद्रित कलाकार लोक चित्रकार की चित्र प्रदर्शनी चल रही है।

लोक चित्रकार और उनकी कृति महारक्त गणपति

पंचतत्व में आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को माना गया है। ब्रह्मांड में एक निराकार, चिरंतन सत्य आत्मा है जिससे आकाश की उत्पत्ति हुई, आकाश से वायु, वायु से तेज (अग्नि), तेज से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। यही पाँच तत्व इस संसार में विभिन्न रूपों में व्याप्त हैं, और इन्हीं से सृष्टि की रचना, पालन और अंत (विलय) होता है।

जलतत्व को भाव में रखते हुए प्रदर्शनी में विभिन्न चित्र प्रदर्शित हैं। इनमें से ‘महारक्त गणपति’ शीर्षक वाला पौभा चित्र किसी का भी ध्यान आकर्षित करता है। जीवन के लिए सर्वप्रथम जल की आवश्यकता होती है। जल तत्व की प्रधानता से जीवन में सुख-समृद्धि और वैभव की वृद्धि होती है, जबकि इसकी कमी से विभिन्न क्षेत्रों में विघ्न, बाधा और कष्ट उत्पन्न होते हैं। प्रथम पूज्य विघ्नहर्ता गणेश को जल के अधिष्ठाता देवता माना गया है। वायु तत्व विष्णु से, पृथ्वी शंकर से, अग्नि देवी से और आकाश सूर्य से संबंधित है। इन पांचों देवताओं की पूजा करना, स्वयं की पूजा करने के समान माना गया है। वेद, पुराण, स्मृति, उपनिषद और संहिताओं में इसके अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं।

शीर्षक के अनुसार, महारक्त गणपति का चित्र लाल रंग में है, जिसे चित्रकार ने बहुत लंबे समय में तैयार किया है। बौद्ध दर्शन में महारक्त गणपति को बुद्धत्व की प्राप्ति में सहायक माना जाता है। जब तक बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं होती, तब तक रक्त गणपति का सहयोग आवश्यक होता है। चित्रकार बताते हैं, “मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि मैंने यह चित्र कब बनाना शुरू किया। लॉकडाउन के दौरान इसे पूरा करने की कोशिश की थी, और फिर गिनती करने पर पता चला कि यह चित्र 16 वर्षों में प्रदर्शनी के लिए तैयार हुआ।”

महिषासुर मर्दिनी

1961 में काठमांडू के इतुम्बहाल (ताहाननी) में जन्मे लोक चित्रकार, नेपाली परंपरागत पौभा (थाङ्का) चित्रकला के गिने-चुने कलाकारों में से एक हैं। उन्होंने इस कला को स्वअध्ययन द्वारा सीखा है और अब अपने चित्रों के माध्यम से विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। बचपन से ही उन्होंने सेतो मच्छिन्द्रनाथ और आसपास के देवी-देवताओं की परंपराएँ और सांस्कृतिक गतिविधियाँ देखीं।

पाटन जैसे धार्मिक और वास्तुकला से समृद्ध शहर में बड़े हुए चित्रकार, मन्दिरों के चित्रों को घंटों तक ध्यान से देखा करते थे। इसी क्रम में उन्होंने 12 वर्ष की आयु में अपना पहला चित्र पूरा किया। उन्हें औपचारिक शिक्षा ज्यादा रोचक नहीं लगी, और उन्होंने स्कूल की पढ़ाई छोड़ दी, लेकिन शास्त्रीय ग्रंथों और चित्रों का स्व-अध्ययन जारी रखा। वे धार्मिक स्थलों का अवलोकन करते, संदर्भों की खोज करते, किताबों का अध्ययन करते और चित्रों को समझने की कोशिश करते। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी राह खुद बना ली।

वे एक प्राचीन परंपरा को संरक्षित करते हुए, पत्थरों और वनस्पतियों से प्राप्त प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करते हैं और अत्यंत कुशलता से पारंपरिक शैली में चित्र बनाते हैं। खनिज और वनस्पति रंगों का उपयोग, अनुभव और साधना पौभा कला की विशेषताएँ हैं। कलाकार खुद अपने लिए प्राकृतिक रंग तैयार करते हैं। कई रंग खानों से लाई गई रंगीन पत्थरों को पीसकर बनाए जाते हैं। लाल रंग के लिए सिम्रिक, नीले के लिए इंडिगो, और अन्य पारंपरिक रंगों का प्रयोग होता है।

सरस्वती

हँसते हुए उन्होंने कहा, “बचपन में माँ आंखों की रोशनी के लिए जो काजल लगाती थीं, वही एक दिन मूड में आकर मैंने शरेश (बाइंडर) में मिलाकर देखा, तो एक बहुत ही अच्छा काला रंग तैयार हुआ, जिससे बहुत महीन रेखाएँ खींची जा सकती थीं।” पुराने किराना दुकानों में मिलने वाली जड़ीबूटियाँ जलाकर जो काला रंग तैयार होता है, वह चित्रों में बहुत उच्च गुणवत्ता वाला सिद्ध होता है। उन्होंने कहा, “यह हमारी मौलिक खोज है।”

यह प्रतीकात्मकता ज्ञान सिखाने की एक भाषा है, जिसमें चित्र बनाने की तकनीक और शास्त्रीय ज्ञान आवश्यक है। कलाकार के लिए कला ही साधना है। काम करते समय कौन-सी शैली अपनानी है और किस वस्तु को कहाँ रखना है, ये समय के साथ स्पष्ट होता जाता है। महारक्त गणपति के चित्र में मुकुट, कंठी, हरे साँप की माला, बारह हाथों में आयुध जैसे तलवार, धनुष-बाण, आभूषणों से सुसज्जित वस्त्र और पारंपरिक शैली में अलंकारिक रेखाओं से चित्रित किया गया है। इस चित्र में अभी और भी वर्षों तक काम किया जा सकता है। पारंपरिक कला में स्थान, रंग, रेखा, और बुट्टा बदलते समय धार्मिक और शास्त्रीय अनुशासन का पालन अनिवार्य होता है। कलाकार की कला और रचना कभी समाप्त नहीं होती।

कला की यात्रा में अक्सर यह पूछा जाता है कि एक ही चित्र में इतना समय क्यों लगा? इस पर वे कहते हैं, “चित्र बनाते समय यह नहीं सोचता कि इसे बेचने के लिए बना रहा हूँ या इसमें कितना समय लगेगा। मेरा कर्म केवल चित्र बनाना है। कभी-कभी चित्र अधूरा रह जाता है।” इतना समय देने वाला यह उनका पहला चित्र नहीं है। पंचतत्व श्रृंखला में उन्होंने 12 वर्षों में एक और चित्र ‘वसुन्धरा’ तैयार किया था, जिसे कुछ समय पहले ऑस्ट्रिया के विएना वेल्ट म्यूजियम में प्रदर्शित किया गया था। उनके गैलरी में ऐसे कई चित्र हैं, जिन पर वर्षों से काम चल रहा है। कुछ चित्र अधूरे रह गए हैं, और कुछ धीरे-धीरे सँवारे जा रहे हैं।

लोक चित्रकार

वे कहते हैं, “आराध्य देवताओं को समझने के लिए चित्रों का माध्यम सरल होता है। यह बौद्ध और हिन्दू धर्म-दर्शन और शास्त्र के शाश्वत पक्षों को चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करता है। पौभा कला हमारी मौलिक जीवनशैली से जुड़ी है। इसमें कलाकार की स्वतंत्रता सीमित होती है, क्योंकि इसमें शास्त्रीय नियमों और विषयवस्तु का पालन आवश्यक होता है। यह कला हमारे पूर्वजों की सभ्यता, सामाजिक संरचना और मानवशास्त्र से जुड़ी होती है। इसलिए इसे धरोहर के रूप में संरक्षित कर अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करना जरूरी है – यही मेरी समझ है,” ।

शास्त्रीयता के संदर्भ में वे आगे कहते हैं, “हम पौभा कला को हमारी मौलिक कला विधा के रूप में मानते हैं, लेकिन कुछ लोग इसे तिब्बत से आया हुआ भी कहते हैं। तिब्बत में एक समय तक नेवार शैली का प्रभुत्व था, जो बाद में नेपाली कला में समाहित हुआ। इसलिए इसे ‘अर्धसत्य’ के रूप में समझना चाहिए। पश्चिमी लेखक जब भी कला की बात करते हैं, तो उसे भारत या तिब्बत से जोड़ देते हैं,” उन्होंने असंतोष व्यक्त किया। उनका कहना है कि हमारा आधारशिला बनने का अवसर न मिलने से ही यह स्थिति बनी है। “यह सब देखकर दुःख होता है,” वे कहते हैं, “लेकिन क्या करें, कोई उपाय भी नहीं है। कमी हममें ही है।” कतिपय इन्हीं कारणों से हमारी लंबी परंपरा और इतिहास गौण होता जा रहा है।

sdaskayastha@gmail.com

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